
भ्रान्तिमान अलंकार, सन्देह अलंकार, पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार || Bhrantimaan, Sandeh and Punruktiprakash Alankar
भ्रान्तिमान अलंकार–
जहाँ भ्रम वश किसी वस्तु को सादृश्य (उसी वस्तु के समान दिखाई देने) के कारण अन्य वस्तु समझ लिया जाए। अर्थात समानता के भ्रम से निश्चयात्मक स्थिति होने पर (यह निश्चित होना कि वही वस्तु है) वहाँ भ्रान्तिमान अलंकार होता है।
उदाहरण–
किंशुक कुसुम समझकर झपटा,
भौरा शुक की लाल चाँच पर।
तोते ने निज ठौर चलाई,
जामुन का फल उसे समझकर ॥
उक्त उदाहरण में भ्रमर (भौरे) को तोते की चोंच में किंशुक कुसुम (किंसुक का फूल) होने का भ्रम हो गया है तथा तोते को भ्रमर में जामुन फल का भ्रम हो गया है। अत। यहाँ भ्रान्तिमान अलंकार है।
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सन्देह अलंकार–
जहाँ किसी वस्तु में उसी के समान वस्तु का संशय हो जाए और अनिश्चय बना रहे तो वहाँ सन्देह अलंकार होता है।
उदाहरण–
लक्ष्मी थी या दुर्गा थी या स्वयं वीरता का अवतार।
उक्त उदाहरण में अनिश्चयात्मक स्थिति है- कवि यह सोच ही नहीं पा रहा कि यह लक्ष्मी है या
रणचण्डी दुर्गा अथवा वीरता को अवतार। यहाँ साहस मूलक संशय बना हुआ है। अतः यहाँ संदेह अलंकार है।
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पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार–
जब किसी काव्य में कथन के सौन्दर्य के लिए अर्थात कही गई बात की सुंदरता के लिए, एक ही शब्द को आवृति को दो या अधिक बार हो वहाँ पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार कहते हैं।
उदाहरण–
मृदु मंद-मंद मंथर-मंथर,
लघु तरणि, हंसनी सी सुन्दर।
उक्त पंक्ति में कथन को सौन्दर्य प्रदान करने के
लिए एक ही शब्द की आवृति जैसे- मंद-मंद और मंथर-मंथर की गई है। अतः इस पंक्ति में पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।
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आशा है, उपरोक्त जानकारी परीक्षार्थियों / विद्यार्थियों के लिए ज्ञानवर्धक एवं परीक्षापयोगी होगी।
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R F Temre
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R. F. Tembhre
(Teacher)
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