बीती विभावरी जाग री― जयशंकर प्रसाद
"गीत"
बीती विभावरी जाग री।
अम्बर-पनघट में डुबो रही-
तारा-घट ऊषा-नागरी।
खग-कुल कुल-कुल सा बोल रहा,
किसलय का अंचल डोल रहा,
लो यह लतिका भी भर लायी-
मधु-मुकुल नवल रस-गागरी।
अधरों में राग अमन्द पिये,
अलकों में मलयज बन्द किये-
तू अब तक सोयी है आली!
आँखों में भरे विहाग री।
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संदर्भ― यह पद्य जयशंकर प्रसाद द्वारा किये गये प्रकृति चित्रण का एक अंश है। इसका उचित शीर्षक 'गीत' है।
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प्रसंग― जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित प्रस्तुत पद्यांश में ज्योत्सनामयी रात्रि के समाप्त हो जाने के पश्चात् उदित होने वाली नवीन उषा की सुंदरता का वर्णन किया गया है।
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महत्वपूर्ण शब्द― विभावरी- रात, अंबर- आकाश, पनघट- पानी भरने का घाट, घट- घड़ा, ऊषा- प्रातःकाल, नागरी- सुंदर स्त्री, किसलय- कोमल कोंपलें, अंचल- आँचल, लतिका- लता, मधु-मुकुल- परागयुक्त पुष्प, नवल रस- नया पराग, गागरी- गगरी, अधर- सुंदर होंठ, अमन्द- पर्याप्त मात्रा, अलक- सुंदर केश, मलयज- सुगंधित चंदन, आली- सखि-सहेली, विहाग- रात्रि के अंतिम पहर में गाया जाने वाला महत्वपूर्ण राग।
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व्याख्या― प्रातः होने के पश्चात् एक सखि को सोते हुए देखकर दूसरी सखि उसे जगाते हुए कहती है कि, री सखी! ज्योत्सनामयी रात्रि बीत चुकी है और प्रातःकाल हो चुका है। अब तू जाग जा। ऊषा (सुबह) रुपी सुंदर स्त्री तारों रूपी घड़े को आकाश रूपी पनघट में डुबो रही है। इसकी परिणति के रूप में उत्पन्न कुल-कुल की पानी की ध्वनि पक्षियों के समूह के कुल-कुल स्वर के रूप में सुनाई दे रही है। अर्थात् सुबह हो जाने के कारण तारे आकाश में छिप रहे हैं और पक्षियों के समूह कुल-कुल ध्वनि में सुंदर संगीत सुना रहे हैं। उषा रूपी सुंदर स्त्री का आँचल कोमल कोपलों (कोमल पत्तों) के कंपन में दिखाई देता है। अर्थात् कोमल पत्ते हिलते हुए सुंदर प्रतीत हो रहे हैं। आगे सखि कहती है कि, लो देखो अब यह हमारी लता रूपी सखी भी अपने पराग रस की गगरी में परागयुक्त पुष्पों को भर लायी है। अर्थात् पेड़ की लताओं में बहुत सारे सुंदर-सुंदर फूल खिल गये हैं। इसके बाद वह सखि अपनी सखि को सोती हुई देख कहती है कि, री सखी! तेरे होंठ रक्तिम दिखाई दे रहे हैं। प्रतीत हो रहा है कि तूने रात्रि में प्रेम रूपी मदिरा का पान किया है। इसलिए तेरे होंठ रक्तिम हो गये हैं। तेरे सुंदर केशों से चंदन की आकर्षक सुगंध आ रही है। हे सखी! तू अभी तक सोई हुई है, जबकि प्रातः काल हो चुका है। तू अपनी आँखों में विहाग राग रूपी खुमारी को लिये हुये है। इससे तेरे आलस्य का ज्ञान होता है।
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विशेष― इस पद्य में जयशंकर प्रसाद ने प्रकृति का सजीव तथा मार्मिक चित्रण किया है। इस गीत में गेयता और चित्रोपमता सहज ही विद्यमान है। यहाँ प्रयोग किये गये प्रमुख अलंकार उपमा, सांगरूपक, अनुप्रास, मानवीकरण और रूपकातिशयोक्ति आदि हैं। परिमार्जित खड़ी बोली का प्रयोग किया गया है। इसके साथ ही इस पद्य में सोयी हुई स्त्री के सुंदर रूप का भी वर्णन किया गया है।
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आशा है, उपरोक्त जानकारी आपके लिए उपयोगी होगी।
धन्यवाद।
R F Temre
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(आशा है, उपरोक्त जानकारी उपयोगी एवं महत्वपूर्ण होगी।)
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