छावते कुटीर कहूँ रम्य जमुना कै तीर– जगन्नाथ दास 'रत्नाकर'
"उद्धव-प्रसंग"
छावते कुटीर कहूँ रम्य जमुना कै तीर
गौन रौन-रेती सों कदापि करते नहीं।
कहैं 'रतनाकर' बिहाइ प्रेम-गाथा गूढ़
स्त्रोंन रसना मैं रस और भरते नहीं।
गोपी ग्वाल बालनि के उमड़त आँसू देखि
लेखि प्रलयागम हूँ नैंकु डरते नहीं।
होतौ चित चाब जौ न रावरे चितावन को
तजि ब्रज-गाँव इतै पाँव धरते नहीं।
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संदर्भ
प्रस्तुत पद्यांश 'उद्धव-प्रसंग' नामक शीर्षक से लिया गया है। इसकी रचना जगन्नाथ दास 'रत्नाकर' ने की है।
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प्रसंग
प्रस्तुत पद्यांश में उद्धवजी के ब्रज के प्रति लगाव का उल्लेख किया गया है।
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महत्वपूर्ण शब्द
छावते कुटीर- कुटिया बना लेते, रम्य- रमणीय, तीर- किनारा, रौन-रेती- रमणरेती, गौन- गमन, कदापि- कभी भी, बिहाइ- छोड़कर, गूढ़- गंभीर, स्त्रोन- कान, रसना- जीभ, लेखि- देखकर, प्रलयागम- प्रलय का आना, चितावन- चेतावनी देने, रावरे- आपके, तजि- छोड़कर, इतै- इधर।
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व्याख्या
प्रस्तुत पद्यांश में उद्धवजी श्री कृष्ण से कहते हैं, कि हे! श्री कृष्ण यदि हमारे मन में आपको गोपियों की दशा बताने की उत्सुकता न होती, तो हम ब्रज छोड़कर इधर कभी न आते। हम रमणीय यमुना नदी के किनारे कुटिया बनाकर निवास करते। हम कभी भी रमणरेती से इस ओर गमन नहीं करते। कवि रत्नाकर के अनुसार, उद्धवजी श्री कृष्ण से कहते हैं, कि हम ब्रज छोड़कर इधर कभी नहीं आते। हम ब्रज में ही गंभीर प्रेम-गाथा सुनते और अपनी जीभ से इसी प्रेम-रस का बखान करते। हम अपनी कान और जीभ दोनों में इस प्रेम-रस के अतिरिक्त कोई अन्य रस नहीं भरते। ब्रज में गोपियों, ग्वालाओं और बालाओं के उमड़ते हुए आसुओं के कारण प्रलय भी आ सकता है। हम इस प्रलय से भी नहीं डरते। यदि हमारे मन में आपको चेतावनी देने की इच्छा नहीं होती, तो हम कभी भी ब्रज से इधर पैर भी नहीं रखते। अर्थात् हम ब्रज में ही निवास करते।
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काव्य-सौंदर्य
प्रस्तुत पद से संबंधित महत्वपूर्ण तथ्य निम्नलिखित हैं–
1. प्रस्तुत पद्यांश के अनुसार, उद्धवजी ब्रज की गोपियों, ग्वालाओं एवं बालाओं के श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम और भक्तिभाव से अत्यधिक प्रभावित हुए हैं। इस कारण उन्हें ज्ञान योग व्यर्थ लगने लगा है।
2. शुद्ध साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग किया गया है।
3. मुहावरों का प्रयोग किया गया है।
4. प्रस्तुत पद अनुप्रास अलंकार का अनूठा उदाहरण है।
5. पद-मैत्री का प्रयोग दर्शनीय है।
6. घनाक्षरी छंद का प्रयोग किया गया है।
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