जैन धर्म की 'संथारा प्रथा' क्या है?
संथारा प्रथा
संथारा प्रथा जैन धर्म की एक महत्वपूर्ण प्रथा है। इस प्रथा के अन्तर्गत जैन धर्म के अनुयायी उपवास के द्वारा अपने प्राणों का त्याग करते हैं। जब किसी व्यक्ति को लगता है कि उसके जीवित रहने का कोई महत्व नहीं रह गया है। वह मृत्यु के निकट है तथा वह केवल दूसरो पर बोझ है। ऐसी स्थिति में वह व्यक्ति एकान्तवास ग्रहण कर लेता है। अन्न-जल का त्याग कर देता है तथा मौन व्रत धारण कर लेता है। इसके पश्चात् वह व्यक्ति किसी भी दिन अपने प्राणों का त्याग कर देता है। संथारा प्रथा के नियमों का पालन केवल जैन धर्म के अनुयायी करते हैं।
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संथारा प्रथा पर विवाद
राजस्थान हाईकोर्ट ने अगस्त 2015 में 'संथारा प्रथा' को गैर कानूनी घोषित करते हुए इस पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। राजिस्थान हाईकोर्ट ने इस प्रथा को आत्महत्या करने का एक माध्यम बताया था। अतः इस प्रथा को भारतीय दण्ड संहिता 306 तथा 309 के अन्तर्गत दण्डनीय घोषित किया गया था। इसके पश्चात् जैन धर्म के अनुयायियों ने अपनी प्रथा के संरक्षण के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की। फलस्वरूप सुप्रीम कोर्ट ने जैन समुदाय से जुड़े संगठनों की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए संथारा प्रथा पर लगे प्रतिबन्ध को हटा दिया।
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सल्लेखना
सल्लेखना जैन दर्शन से सम्बन्धित एक महत्वपूर्ण शब्द है। यह शब्द 'सत्' और 'लेखना' शब्दों से मिलकर बना है। इसका शाब्दिक अर्थ 'अच्छाई का लेखा-जोखा' होता है। जैन दर्शन में अहिंसा और काया-क्लेश को विशेष महत्व दिया गया है। अतः सल्लेखना शब्द उपवास के द्वारा देह त्यागने के सन्दर्भ में आया है।
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R F Temre
pragyaab.com
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