उत्तर भारत के राज्य (800 ई. से 1200 ई.) | States of North India (800 AD to 1200 AD)
647 ई. में हर्षवर्धन की मृत्यु के पश्चात् उसका साम्राज्य टुकड़ों टुकड़ों में विभाजित हो गया था, क्योंकि उसका कोई उत्तराधिकारी नहीं था। ऐसी स्थिति में अनेक क्षेत्रीय राज्यों का उदय हुआ। इन राज्यों में शासन करने वाले राजवंश, राजपूत राजवंश के नाम से जाने गये, इनमें प्रमुख थे गुर्जर प्रतिहार, पाल, कलापुरी, परमार, चौहान, इत्यादि राजपूत अपनी बरता, शौर्य, साहस तथा मातृभूमि के प्रति सर्वस्व समर्पित करने के लिये जाने जाते हैं।
राजपूतों की उत्पत्ति
राजपूतों की उत्पत्ति के विषय में विद्वानों में विभिन्न मत है, अधिकांश भारतीय इतिहासकार इन्हें वैदिक कालीन क्षत्रियों से उत्पन्न मानते हैं।
1. गुर्जर प्रतिहार वंश
भारत में प्रतिहारों की तीन शाखाओं ने शासन किया। इनमें से प्रमुख शाखा उज्जैयिनी के प्रतिहार वंश की थी। इस वंश का संस्थापक नागभट्ट प्रथम था।। इस वंश के राजाओं ने मध्यप्रदेश, गुजरात, उत्तरप्रदेश तथा राजस्थान के कुछ भागों पर लम्बे समय तक स्वतंत्र रूप से शासन किया। नागभट्ट प्रथम वत्सराज, नागभट्ट द्वितीय, मिहिरभोज तथा महेन्द्रपाल प्रथम इस वंश के प्रमुख शासक थे। प्रतिहारों, पालो तथा दक्षिण के राहों के मध्य बीज पर अधिकार करने के लिये सम्बे समय तक युद्ध हुए। इन युद्धों को के नाम से जाना जाता है। प्रतिहार शासक मिहिरभोज इस वंश का सर्वाधिक प्रतापी शासक था। प्रतिहार शासकों ने उत्तरी भारत में कुछ समय के लिये राजनैतिक एकता स्थापित की।
1647 ई. में सम्राट हर्ष की मृत्यु के बाद कन्नौज पर अधिकार करने के लिए 800 ई. से 1200 ई. तक राष्ट्रकूट, पालवंश, गुर्जर-प्रतिहार, अन्य राजपूत वंशों में निरंतर संघर्ष होते रहे।
2. पाल वंश
इस वंश का मूल स्थान बंगाल था। 8वीं सदी के मध्य में उत्तर भारत में एक बड़ा साम्राज्य बंगाल के पाल शासकों ने स्थापित किया। कन्नौज को प्राप्त करने के लिए पाल शासकों ने प्रतिहारों और राष्ट्रकूटों से सतत् संघर्ष किया। गोपालपाल, धर्मपाल, देवपाल आदि इस वंश के पराक्रमी राजा थे।
पाल वंश के शासक शिक्षा और धर्म के संरक्षक थे। धर्मपाल ने विक्रमशिला के बुद्ध मठ की स्थापना की थी।
विक्रमशिला ने कालांतर में एक महत्वपूर्ण शिक्षा केन्द्र का रूप ले लिया था।
3. चालुक्य वंश
गुजरात के सोलकी (चालुक्य वंश का संस्थापक मूलराज था। इस वंश के राजा भीम प्रथम के समय महमूद गजनवी का आक्रमण गुजरात की ओर से हुआ, जिसमें हिन्दू वीरता से लड़े, किन्तु उनकी पराजय हुई। महमूद गजनवी ने गुजरात में स्थित प्रसिद्ध सोमनाथ के मन्दिर पर आक्रमण कर मन्दिर तथा मूर्ति को तोड़ा और अपार धनराशि लेकर लौटा।
4. परमार वंश
परमार वंश के प्रमुख शासक श्रीहर्ष, मुज, सिंधुराज भोजदेव, जयसिंह और उदयादित्य थे। श्रीहर्ष ने राष्ट्रकूटों को पराजित करके मालवा में स्वतंत्र राज्य की स्थापना की और इंदौर के निकट धारा नगरी को अपनी राजधानी बनाया। इस वंश का प्रमुख शासक भोजदेव. महान विजेता, उच्च कोटि का लेखक, कवि और विद्वान था। उसकी राजसभा में अनेक विद्वान और कवि रहते थे। स्वयं राजा भोज ने कुछ ग्रंथ लिखे है व अनेक राजप्रसाद, मंदिर, और तालाब निर्मित करवाये। उसने आधुनिक भोपाल से 35 किमी दूर दक्षिण-पूर्व में भोजपुर बसाया, जहां का शिव मंदिर प्रसिद्ध है।
मध्यप्रदेश की राजधानी का प्राचीन नाम 'भोजपाल' था, जो कालांतर में भोपाल के नाम से प्रसिद्ध हो गयी।
5. चौहान वंश
राजपूताने के मध्य भाग में चौहानों का राज्य था। प्रारंभ में ये गुर्जर प्रतिहारों के सामत थे, किन्तु विग्रहराज ने तोमरों को हराकर चौहान वंश के स्वतंत्र राज्य की नींव डाली। 12वीं सदी के आरंभ में अजयराज चौहान ने अजमेर (अजयमेरू) नगर की नीव डाली। जहां अनेक महलों व मंदिरों का निर्माण करवाया। इस वंश का महान प्रतापी शासक पृथ्वीराज चौहान हुआ। जिसके वीरतापूर्ण कार्यों का वर्णन कवि चन्दबरदाई ने "पृथ्वीराजरासो'' नामक ग्रंथ में किया है। पृथ्वीराज ने गुजरात के सोलंकी और बुन्देलखंड के चंदेल तथा कन्नौज के जयचंद से युद्ध किए। भारतीय इतिहास में पृथ्वीराज चौहान का सम्माननीय स्थान है।
736 ई. में तोमर वंश के अनंगपाल ने दिल्लिका (दिल्ली नगर) को बसाया था।
इन प्रमुख राजपूत राजाओं के अतिरिक्त संपूर्ण भारत में अनेक छोटे-छोटे राज्य थे, जैसे बुंदेलखंड के चंदेल, मेवाड़ के गहलोत, दिल्ली व हरियाणा के आसपास के तोमर। इनके अतिरिक्त नेपाल, कामरूप और उत्कल के राज्य और पंजाब के पर्वतीय राज्य, चंबा, कुल्लू और जम्मू के नाम उल्लेखनीय है।
भारत पर तुर्कों के आक्रमण-
महमूद गजनवी पश्चिमी एशिया की एक छोटी-सी रियासत गजनी का शासक था। वह अति महत्वाकाक्षी था। उसे एक विशाल सेना की आवश्यकता थी. और सेना के लिए धन की आवश्यकता थी। भारत की धन-संपदा के बारे में उसने बहुत-सी गाथाएँ. सुन रखी थीं, अतः धन प्राप्त करने के उद्देश्य से, सन् 1000 ई. से 1027 तक उसने भारत पर 17 बार आक्रमण किए। उसने मंदिरों को नष्ट किया, मूर्तियाँ तोड़ी और वह भारत से लगातार ना अपार धन, सोना, चांदी, आभूषण रत्न लूटकर गजनी ले जाता रहा।
महमूद गजनवी ने ई. सन् 1025 में सोमनाथ के प्रसिद्ध मंदिर को नष्ट किया व संपत्ति को लूटा।
इसी काल में मध्य एशिया का प्रसिद्ध विद्वान अल्बेरूनी भारत आया था। उसकी पुस्तक 'तहकीक-ए-हिंद' से हमें तत्कालीन भारत की महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है।
तुर्की के पुनः आक्रमण
महमूद गजनवी के आक्रमणों के लगभग 150 वर्षों के पश्चात अफगानिस्तान की एक छोटी सी रियासत गोर के शासक मुहम्मद गोरी ने पश्चिमोत्तर भारत पर आक्रमण किया। भारतीय राजाओं के आपसी संघर्ष का लाभ उठाते हुए गोरी ने सन् 1175 ई में भारत पर पहला आक्रमण कर मुल्तान तथा सिन्ध पर अधिकार कर लिया। सन् 1178 ई. मे उसने गुजरात की ओर से आक्रमण किया, जहां उसे राजपूत नरेश मूलराज ने परास्त कर दिया। इसके बाद गोरी ने पंजाब पर तीन बार आक्रमण किए और 1186 में पंजाब को जीत लिया। इस विजय से गोरी के राज्य की सीमाएँ अजमेर और दिल्ली के शक्तिशाली राजपूत नरेश पृथ्वीराज चौवन के राज्य से टकराने लगी। सन् 1190 में गौरी ने भंटिडा के किले पर आक्रमण किया, वहा उसे पृथ्वीराज चौहान का सामना करना पड़ा। दोनों के बीच 1191 में तराइन का प्रथम युद्ध हुआ, जिसमें पृथ्वीराज्ञ की वीरता व साहस के आगे गोरी टिक न सका। पराजित होकर बहुत घायल अवस्था में वह भाग गया। 1192 में गोरी ने पुनः भारत पर आक्रमण किया और तराइन के मैदान में दोनों सेनाओं में घमासान युद्ध हुआ। तराइन के द्वितीय युद्ध में पृथ्वीराज की हार हुई। इस विजय सेतु का अधिकार अजमेर, दिल्ली, हांसी (हरियाणा) पर हो गया। गोरी ने भारत के जीते प्रदेशों का शासन व्यवस्था का कार्य अपने एक गुलाम सेनानायक कुतुबुद्दीन ऐबक को सौंप दिया।
पृथ्वीराज चौहान एवं कबौज के राजा जयचंद में परस्पर शत्रुता थी गोरी ने इस राता का लाभ उठाकर सन् 1192 में तराईन के द्वितीय युद्ध में शक्तिशाली राजा पृथ्वीराज चौहान को परास्त किया।
पृथ्वीराज चौहान की हार और मोहम्मद गोरी की जीत ने भारत में मुस्लिम राज्य की नीव डाली।
आक्रमणकारियों ने अजमेर को खूब लूटा एवं वहाँ विशालदेव द्वारा निर्मित प्रसिद्ध शिक्षा केन्द्र को मस्जिद में परिवर्तित कर दिया, जिसे 'अढ़ाई दिन का झोपड़ा कहा जाता है।
तत्कालीन उत्तरी भारत में समाज अर्थव्यवस्था, धार्मिक स्थिति व कला -
सामाजिक जीवन
(1) समाज चार वर्णों ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्रों में बंटा था। आगे चलकर यह अनेक जातियों में बंट गया। ब्राह्मणों व क्षत्रियों का समाज में सर्वोच्च स्थान था।
(2) रूढ़िवादिता व संकीर्णता समाज में बढ़ रही थी। प्रायः लाग अपनी ही जाति में विवाह करना पसंद करते थे।
(3) स्त्रियों को संपत्ति में उत्तराधिकार प्राप्त था। उनमें पर्दा प्रथा आरम्भ हो गई थी, सती-प्रथा का प्रचलन था। आक्रमणकारियों के हाथों में (पराजय की स्थिति) पड़ने से अपने आपको बचाने के लिए स्त्रियाँ सामूहिक आत्मदाह (जोहर) कर लेती थीं।
(4) खान-पान व पहनावे में थोड़ा बदलाव आया था।
(5) शूद्रों ने जीविका उपार्जन हेतु कृषि मजदूरी व अन्य धंधे अपना लिए थे।
(6) मेले, त्यौहार तथा पवित्र स्थानों की तीर्थ यात्राएँ करना सामाजिक गतिविधियों का अंग था।
आर्थिक स्थिति
(1) ग्रामीण जनता कृषि तथा पशुपालन के कार्यों में लगी थी। कुछ नगर व्यापारिक केन्द्र बन चुके थे। पाटलिपुत्र, अयोध्या, उज्जैन, कन्नौज, मथुरा और काशी प्रमुख व्यापारिक केन्द्र थे।
(2) उद्योग के क्षेत्र में कपड़ा उद्योग प्रसिद्ध था। ऊनी, सूती तथा रेशमी वस्त्रों में विविधता थी।
(3) धातु उद्योग में कोंसे की ढली मूर्तियाँ, खिलौने, हाथीदाँत की वस्तुएँ, सोने व चादी के आभूषण व बर्तनों के काम में प्रगति हुई थी।
(4) मध्य एशिया से भारत के व्यापारिक संबंध थे। चंदन, जायफल, लौंग, मसाले बहुमूल्य रत्न मोती आदि का निर्यात तथा घोड़े व खजूर का आयात मध्य एशिया व अरब से किया जाता था।
शिक्षा और साहित्य
(1) शिक्षा का स्वरूप पिछली शताब्दियों की तरह ही विकसित हो रहा था। मंदिर, मठ, घटिका, अग्रहार और विहार शिक्षा के केन्द्र होते थे।
(2) उच्च शिक्षा सुव्यवस्थित ढंग से दी जाती थी। व्यावसायिक शिक्षा का प्रशिक्षण श्रेणियों व कला शिल्पियों के समूहों में दिया जाता था।
(3) बौद्ध धर्म ने शिक्षा के क्षेत्र में विशेष योगदान दिया। विक्रमशिला का प्रसिद्ध विश्वविद्यालय इस काल की देन है।
(4) साहित्य की प्रमुख भाषा संस्कृत थी, जिसका स्वरूप कुछ बिगड़ा तो 'अपभ्रंश' भाषाओं का विकास हुआ।
नालंदा, काशी, विक्रमशिला और कन्नौज इस काल के प्रमुख शिक्षा केन्द्र थे।
प्राकृत, पाली व तमिल भाषाओं का इस काल में विकास हुआ व साहित्य की रचना हुई।
लेखक – रचनाएँ
माघ – शिशुपाल वध
भवभूति – उत्तर रामचरित
भारवि – किरातार्जुनीयन
विल्हण – विक्रमांकदेवचरित
कल्हण – राजतंरगिणी
जयदेव – गीत-गोविन्द
चंदबरदाई – पृथ्वीराज रासो
क्षेमेन्द्र – बृहतकथा मंजरी
विज्ञान और प्रौद्योगिकी
12वीं शताब्दी के गणितज्ञ भास्कराचार्य की पुस्तक 'सिद्धांत शिरोमणि' चार भागों में है। इस पुस्तक का अनुवाद अरबी, फारसी तथा यूरोपीय भाषाओं में हुआ। औषधि विज्ञान पर माघव ने अनेक शोध ग्रंथ लिखे। 'रूगविनिश्चय' एक प्रसिद्ध पुस्तक है। चरक संहिता तथा सुश्रुत संहित का अनुवाद अरबी, तिब्बती भाषाओं में इसी समय हुआ।
धार्मिक जीवन
(1) वैष्णव, शीव, बौद्ध तथा जैन आदि धर्म लोगों के लिए प्रेरणादायी थे।
(2) अलवार (वैष्णव) और नयनार (शैव) संतों के नेतृत्व में दक्षिण भारत में भक्ति आंदोलन का प्रसार हुआ।
(3) इस युग में भगवान विष्णु की उपासना दो रूपों 'कृष्णावतार व रामावतार' को आराध्य मानकर की जाती थी। भगवान विष्णु के दस अवतारों की क्या इस समय बहुत लोकप्रिय हुई।
(4) भगवान राम व कृष्ण से संबंधित कथाओं को दीवारों पर मूर्तियों व चित्रों के द्वारा दर्शाया गया है।
दक्षिण भारत में आदि शंकराचार्य और रामानुजाचार्य ने धर्म के प्रति नव-जागृति फैलाई।
वास्तुकला एवं चित्रकला
(1) इस काल में सुंदर मंदिर तथा स्मारक बनाए गए. इनमें पुरी का जगन्नाथ मंदिर, भुवनेश्वर का लिंगराज मंदिर तथा कोणार्क का सूर्य मंदिर उत्तम उदाहरण है।
(2) मध्यप्रदेश में चंदेलों द्वारा बनवाए गए खजुराहो के मंदिर अपनी उत्कृष्ट कला व मूर्तियों के लिए सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं, इनमें कंदरिया महादेव मंदिर प्रमुख है। इसे विश्व दायभाग (विश्व धरोहर ) में शामिल किया गया है।
(3) राजस्थान के पर्वत पर बने दिलवारा आबू के जैन मंदिर अपनी अनुपम सुंदरता के लिए विश्वविख्यात है।
(4) मैसूर जिले के श्रवणबेलगोला में गोमतेश्वर की जैन-मूर्ति स्वतंत्र रूप से खड़ी विश्व की मूर्तियों में (57 फीट) एक अनुपम उदाहरण है।
(5) मूर्तिकला के विकास में उत्कृष्ट उदाहरण पाल शासकों के काल में बनी काले पत्थर की मूर्तियाँ हैं।
(6) चित्रकला का विकास हुआ, मंदिरों व राजमहलों को सजाने के लिए सुंदर भित्ति चित्र बनाए जाते थे।
(7) लघु चित्रों को बनाने की कला का आरंभ इसी समय से हुआ। पुस्तकों को आकर्षक बनाने के लिए ये चित्र बनाए जाते थे।
I hope the above information will be useful and important.
(आशा है, उपरोक्त जानकारी उपयोगी एवं महत्वपूर्ण होगी।)
Thank you.
R F Temre
pragyaab.com
Comments