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आरती क्यों करना चाहिए? आरती का अर्थ | आरती करने की विधि | घर की व मंदिर की आरती में अन्तर | आरती लेने का कारण

मानव के लिए ईश्वर आराधना सर्वोपरि है। भगवान की आराधना कई रूपों में की जाती है। सनातन परम्परा में ईश्वर पूजा विशिष्ट स्थान रखती है। इस पूजा विधान में आरती का अपना विशेष महत्व है। आरती क्या है? इसका अर्थ समझना प्रत्येक धार्मिक व्यक्ति के लिए अति आवश्यक है।

आरती का अर्थ― आरती शब्द आरत या आर्त शब्द से बना है और इस शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के 'आर्तिका' शब्द से हुई है जिसका अर्थ अरिष्ट, विपत्ति, आपत्ति, कष्ट और क्लेश आदि होता है। यहाँ विचारणीय बात यह है कि इस तरह के विपरीत (नकारात्मक) अर्थ होने पर भी ईश्वर आराधना कैसे कहलाती है। यहाँ यह उल्लेख करना आवश्यक है कि हम सदैव भगवान के सम्मुख दीन-हीन भाव से उपस्थित होते हैं अर्थात कुछ माँगने के लिए खड़े होते हैं। जब कभी हम घोर आपत्ति या विकट स्थिति में होते हैं तब भी ईश्वर की ही आराधना करते हैं। अतः हम दीन-हीन भाव से ईश्वर की स्तुति करते हैं, ईश्वर का गुणगान करते हैं जिसे आरती कहा गया है।
दूसरे शब्दों में कहें तो भगवान के सामने उपस्थित होकर अपने कष्टों, विपत्तियों, परेशानियों, दीन-हीनता को दूर करने हेतु आराधना करना है।

आरती का दूसरा अर्थ 'नीराजन' भी है जिसका अर्थ है किसी स्‍थान को विशेष रूप से प्रकाशित करना। यहाँ इसके अर्थ को विस्तारित किया जाए तो हम पाते हैं कि जब कभी हम ईश्वर की आराधना या पूजा करते हैं तो उस समय उस स्थान को दीपक से प्रकाशित करते हैं। इस तरह आरती के समय भी दीपक जलाकर ईश्वर के चारों ओर घुमाया जाता है जिसे नीराजन कहते हैं।

आरती क्यों करना चाहिए?

हमारे धर्म ग्रंथों में विशेष रूप से आरती करने के मुख्य कारण का स्पष्ट उल्लेख किया गया है―
ईश्वरीय छवि का प्रत्यक्ष दर्शन― हमारे सनातन धर्म में ईश्वर की छवि के दर्शन करना कल्याणकारी माना जाता है इस तरह जब आरती की जाती है उसे समय दीपक को ईश्वर के चारों ओर घुमाया जाता है ताकि ईश्वर के प्रत्येक अंग-प्रत्यंग उनके आभूषण इत्यादि को स्पष्ट रूप से हम निहारकर संपूर्ण आनंद को प्राप्‍त कर अपने हृदय में ईश्वर छवि को धारण कर रख सकें। जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है आरती को नीराजन कहते हैं और इसमें भगवान की छवि को दीपक की लौ से विशेष रूप से प्रकाशित किया जाता है। जब दीपक की लौ ईश्वर की प्रतिमा या छवि पर पड़ती है तो उसे परावर्तित किरणें हमारी आँखों तक पहुँचती है जिससे हमारे अंदर एक अलौकिक आनंद की अनुभूति होती है।

आरती में समाए हैं पंचमहाभूत तत्‍व

इस संसार की रचना पंच महाभूत― पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से मिलकर हुई है और आरती में भी पाँच वस्तुएंँ शामिल होती हैं।
1. पृथ्वी― पृथ्वी से आशय पृथ्वी की सुगंध कपूर।
2. जल― जल से आशय जल की मधुर धारा, घीं।
3. अग्नि― अग्नि से आशय दीपक की लौ।
4. वायु ― वायु से आशय लौ का हिलना।
5. आकाश― से आशय आकाश से आशय घण्टा या घण्टी, शंख, मृदंग आदि की ध्वनि।
उक्त पाँचों तत्वों का प्रतिनिधित्‍व करते हैं। इस प्रकार संपूर्ण संसार में समाहित इन तत्वों से ही भगवान की स्तुति (आरती) होती है।

आरती करने की विधि

आरती करने हेतु सुन्दर थाली में सर्वप्रथम स्वास्तिक का चिह्न बनाना चाहिए। इसके पश्चात पुष्प व अक्षत के साथ आसन पर एक दीपक में घीं की बाती और कपूर रखकर प्रज्ज्वलित करना चाहिए। प्रार्थना करना चाहिए कि हे गोविन्द, आपकी प्रसन्नता के लिए मैंने रत्नमय दीपक में कपूर और घीं में डुबोई हुई बाती जलाई है। जो मेरे जीवन के सारे अंधकार दूर कर देगी। इसके पश्चात एक ही स्थान पर खड़े होकर भगवान की आरती करना चाहिए।
भगवान की आरती उतारते समय आरती को भगवान चरणों में चार बार घुमाना चाहिए। इसी तरह भगवान की नाभि पर दो बार और एक बार मुखमण्डल पर आरती घुमाना चाहिए। फिर सात बार सभी अंगों पर घुमाने का शास्त्रों में विधान है।
इसके पश्चात शंख में जल लेकर भगवान के चारों ओर घुमाना चाहिए और फिर इस जल को स्वयं के ऊपर तथा अन्य भक्तजनों पर छिड़कना चाहिए। तत्पश्चात मन से ही अपने ईष्ट प्रभु को साष्टांग प्रणाम करना चाहिए।

घर की व मंदिर की आरती में अन्तर

आपने देखा होगा आरती करते समय अलग-अलग तरह से बातियाँ जलाकर ईश्वर की आरती की जाती है। किंतु बातियों की संख्या घर एवं मंदिर में अलग-अलग होनी चाहिए। भक्तगणों को घर में एक बाती की ही आरती करनी चाहिए। जबकि भगवान के मंदिरों की बात करें तो यहाँ 5, 7, 11, 21 या फिर 31 बातियों से आरती की जाती है। शुद्ध घी में डुबोई बाती से ही ईश्वर की आरती करनी चाहिए। पूजन विधान चाहे वह छोटा हो या फिर बड़ा बिना आरती के पूर्ण नहीं माना जाता है।

आरती करने एवं देखने का महत्व

जिस प्रकार आरती के दीपक की लौ ऊपर की ओर जाती है। उसी प्रकार आरती देखने, करने एवं लेने (स्वीकार करने) से मनुष्य की अपनी आध्यात्मिक दृष्टि उच्चता को प्राप्त करती है। आरती करने देखने या लेने से मानव मन के विकार दूर हो जाते हैं एवं सबल बुद्धि विकसित होती है। नकारात्मकता दूर हटती है एवं सकारात्मक का प्रादुर्भाव होता है। मानव मस्तिष्क में ज्ञान के प्रकाश का उद्भव होता है। ऐसा कहा जाता है कि पूजा के समय की गई शंख ध्वनि जितनी दूर तक प्रवाहित होती है वहाँ तक के वायु, पृथ्वी में समाहित हरिकारक तत्व समाप्त हो जाते हैं।
जिस घर में आरती होती है उस घर के आसपास की नकारात्मक ऊर्जा स्वतः समाप्त हो जाती है एवं सकारात्मक ऊर्जा उस घर की ओर प्रभावित होती हैं जिससे मानव सुख शांति एवं समृद्धि को प्राप्त करते हुए इहलोक एवं परलोक में अपने आपको धन्य कर पाते हैं।

आरती लेने (स्वीकारने /चेहरे से लगाने) का कारण

भगवान की आरती होने के बाद श्रद्धालु या भक्तगण जब दोनों हाथों से आरती लेते हैं तो उसमें भी दो भाव छिपे होते हैं―
पहला― जिस दीपक की लौ ने हमें अपने आराध्य के नख-शिख के इतने सुंदर दर्शन कराएँ हैं, उसकी हम बलैया (अरिष्ट दूर करना) लेते हैं जिसे सिर पर धारण करते हैं।
दूसरा― जिस दीपक की लौ ने भगवान के अरिष्ट हरे हैं अर्थात दूर किये हैं, उसे हम अपने मस्तक पर धारण करते हैं।
BK आस्था दीदी
सिवनी

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I hope the above information will be useful and important.
(आशा है, उपरोक्त जानकारी उपयोगी एवं महत्वपूर्ण होगी।)
Thank you.
R F Temre
pragyaab.com

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