An effort to spread Information about acadamics

Blog / Content Details

विषयवस्तु विवरण



ऋग्वेद का प्रथम सूक्त– 'अग्नि सूक्त' का हिन्दी अर्थ एवं इसका विश्लेषण | Rigveda Agni Sukt Hindi arth

पहला सूक्त ― अग्नि सूक्त

ॐ अग्निमीले पुरोहितं
यज्ञस्य देवमृत्विजम्।
होतारं रत्नधातमम् ॥1॥

सूक्त के ऋषि― मधुच्छन्दा, वैश्वामित्र।
सूक्त के देवता― अग्नि।
सूक्त का छन्द― गायत्री।
कहाँ वर्णित है ― प्रथम मंडलम् (प्रथमाष्टकः)
अथ प्रथमोऽध्यायः (प्रथमोऽनुवाक)

हिन्दी-अनुवाद― मैं अग्निदेव की स्तुति करता हूँ, जो यज्ञ के पुरोहित, देवता, ऋत्विज् (यज्ञ कराने वाला), होता (हवन करने वाला) रत्नों के अतिशय या श्रेष्ठ दाता हैं। (अर्थात यज्ञ का पुरोहित, देवता, ऋषि और देवों का आह्वान करने वाला होता (हवन करने वाला) तथा याजकों को यज्ञ का लाभ प्रदान करने वाला जो अग्नि है, मैं उस अग्निदेव आराधना करता हूँ।)

सूक्त का विश्लेषण

(१) अग्निसूक्तम् ― अग्नि-देवता सम्बन्धी मन्त्र या स्तुति है। यह ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के प्रथम अष्टक का पहला सूक्त है। यहाँ नौ ऋचाओं या मंत्रों में अग्निदेव की स्तुति की गई है, अतः इसे अग्निसूक्त कहते हैं। वैदिक देवताओं में इन्द्र के बाद अग्नि ही महत्त्वपूर्ण देव हैं। प्रायः दो सौ सूक्तों में इस देवता को सम्बोधित किया गया है। अग्नि देवताओं का मुख माना जाता है; क्योंकि इसमें जो आहुति डाली जाती है, वही देवताओं को प्राप्त होती है। मुख प्रधान अंग माना जाता है। इस प्रधानता के कारण ही भगवान् वेदपुरुष ने अग्निसूक्त को प्रथमतः कहा है।

प्रत्येक सूक्त के ऋषि, छन्द और देवता को जान लेना आवश्यक है। बिना इनको जाने मन्त्र-पाठ करने से प्रत्यवाय लगता है―
"अविदित्वा ऋषिं छन्दो दैवतं योगमेव च।
योऽध्यापयेज्जपेद्वापि पापीयाञ्जायते तु सः॥
ऋविच्छन्दोदैवतानि ब्राह्मणाचे स्वराद्यपि।
अविदित्वा प्रयुञ्जानो मन्त्रकण्टक उच्यते।।"

मन्त्र का क्या दिया गया है सब कुछ जानना चाहिए उसके लिए कहा गया है―
'स्वरो वर्णोऽक्षरं मात्रा विनियोगोऽर्थ एव च।
मन्त्रं जिज्ञासमानेन वेदितव्यं पदे पदे।।'

इस तरह अग्निसूक्त के ऋषि मधुच्छन्दा माने जाते हैं, जो विश्वामित्र के पुत्र थे। उन्होंने ही इस सूक्त का दर्शन (ज्ञान) प्राप्त किया था। युगान्त में जब वेद अन्तर्निहित हो गये थे तब पुनः सृष्ट्यादि में ऋषियों ने ब्रह्मा की आज्ञा से तपस्या करके वेदों को प्राप्त किया था। उनमें जिन ऋषि का जो मन्त्र या सूक्त प्राप्त हुए वही उन मन्त्रों या सूक्त के ऋषि माने गये।
'युगान्तेऽन्तर्हितान् वेदान् सेतिहासान् महर्षयः।
लेभिरे तपसा पूर्व- मनुजाताः स्वयंभुवा।।'

अग्निसूक्त का छन्द गायत्री है। यहाँ तीन पाद वाली गायत्री है। इसके प्रत्येक पाद में ८ वर्ण होते हैं। छदि अपवारणे धातु से छन्द शब्द बनता है। मन्त्र का छन्द पुरुष के पाप-सम्बन्ध को रोकने के लिए आच्छादक का काम करता है, इसलिए इसको छन्द कहते हैं।

अग्निसूक्त का देवता तो अग्नि ही है। 'दीव्यतीति देवः।' मन्त्र द्वारा जो प्रकाशित हो वह देवता है। यहाँ मन्त्रों द्वारा प्रकाशित अग्नि है, अतः अग्नि देवता है।

(२) अग्निम् ― अग्निम् अर्थात अग्नि की। यह 'ईळे' का कर्म है।
अङ्गति स्वर्गे गच्छति
हविनॆतुम् इति अग्निः अङ्ग्+ नि नकारस्य
लोपश्च 'अङ्गेर्नलोपश्च' इति उणादिसूत्रेण।

यहाँ 'धातोः' सूत्र से अकार उदात्त है, फिर 'आद्युदात्तश्च' सूत्र से प्रत्ययगत इकार भी उदात्त है। तब 'अनुदात्त' पदमेकवर्जम्' सूत्र से अ अनुदात्त हो जाता है। ब्राह्मण ग्रन्थों में अग्नि के लिए कहा गया है―
'अग्निर्मुखं प्रथमो देवतानाम्' (ऐ० ब्रा० १, ४)।
(तै० ब्रा० २, ४, ३, ३)।
'स वा एषोऽग्र देवतानामजायत
तस्मादग्निर्नाम' इति वाजसनेविनः।

(३) ईळे ― स्तुति करता हूँ। यहाँ धातुरूप 'ईडे' है। 'ईड् स्तुतौ' अदादिगणीय धातु के लट् लकार उत्तम पुरुष एकवचन का यह रूप है। ऋग्वेद में दो स्वरों के मध्य में स्थित डकार को लकार पढ़ने का नियम है―
'अज्मध्यस्थडकारस्य ळकारं बह्वृचा जगुः।
अज्मध्यस्थढकारस्य ळ्ह‌कारं वै यथाक्रमम्।।'

यास्क के अनुसार ईड् का अर्थ याचना करना या पूजा करना है; किन्तु पतञ्जलि के अनुसार इसका अर्थ- स्तुति, याचना, उकसाना और प्रेरणा है। 'ईळ' यह सम्पूर्ण पद अनुदात्त है, क्योंकि 'तिङ्ङतिङः' सूत्र से इस तिङन्त पद को निघात (अनुदात्त) हो गया है।

(४) पुरोहितम् ― यज्ञादि धार्मिक कृत्य कराने वाला।
पुरो दृष्टादृष्टफलेषु कर्मसु धीयते आरोप्यते यः।
यद्वा पुर आदावेव हितं मङ्गलं यस्मात् स पुरोहितः।
पुर् आदेश 'पूर्वाधरावराणामसि पुरधवश्चैषाम्'
इति सूत्रेण' पूर्व अस्, पुरः।
पुरस् धा+क्त, घा इत्यस्य 'दधातेहिः'
इति सूत्रेण हि आदेशः पुरोहितः।

यहाँ पूर्वपदप्रकृतिस्वर होने से ओकार उदात्त है और अवशिष्ट को अनुदात्तस्वरितप्रचय हुआ।

(५) यज्ञस्य ― यज्ञस्य अर्थात यज्ञ का।
इज्यते हविर्दीयतेऽत्र इज्यन्ते देवता अत्र वा,
यज् + नङ् 'यजयाचयतविच्छप्रच्छरक्षो नङ्' इति सूत्रेण।

यज्ञ शब्द अन्तोदात्त है और विभक्ति को सुप्स्वर से अनुदात्त होने के पश्चात् स्वरितत्व हो गया।

(६) देवम् ― देवम् अर्थात देवता = प्रकाशयुक्त या दान आदि गुणों से युक्त।
दीव्यतीति देवः दिव्+अच् पचादित्वात्।
यह 'चित्स्वरेण' सूत्र से अन्तोदात्त है।

(७) ऋत्विजम् ― ऋत्विजम् अर्थात ऋत्विज्, यज्ञ कराने वाला।
ऋतौ यजति इति ऋतु यज् + क्विन्।
साधारणतया प्रत्येक यज्ञ में चार ऋत्विज् हुआ करते हैं―
होतृ, उद्गातृ, अध्वर्यु, ब्रह्मन्।
किन्तु बड़े यज्ञ में इनकी संख्या १६ होती है। यह कृदुत्तरप्रकृतिस्वरेण अन्तोदात्त है और पूर्ववत् विभक्तिस्वर हुआ।

(८) होतारम् ― होतारम् अर्थात होता, हवन करने वाला या देवों को (यज्ञ में) बुलाने वाला।
हु+तृन्। यास्क ने ह्वे या हु धातु से इसकी व्युत्पत्ति की है। होतृ शब्द नित्स्वरेण नाद्युदात्त है, स्वरित और प्रचय पूर्ववत् हुए।

(९) रत्नधातमम् ― रत्नधातमम् अर्थात रस्नों का श्रेष्ठ दाता या धारणकर्ता।
रत्नानि दधातीति रत्नघाः रत्न धा+क्विप्,
अतिशायी रत्नघाः इति रत्नधातमः रत्नधा तमप्।

यहाँ रत्न शब्द आद्य दात्त है, रत्नधा शब्द अन्तोदात्त हुआ, फिर 'तम' को 'तमप्प्रत्ययस्य' सूत्र से अनुदात्त होने पर स्वरित और प्रचय हुए।

विशेष जानकारी― इस मन्त्र में अग्नि की स्तुति करते हुए उसी को यज्ञ का पुरोहित, देवता, ऋत्विज्, होता तथा रत्नदाता कहा गया है। इस प्रकार मंत्र का अर्थ स्पष्ट ही है, किन्तु कई टीकाकारों ने―
"पुरोहित, यज्ञ के दैवी ऋत्विज् (देवों को) बुलाने वाले तथा रत्नों के श्रेष्ठ दाता अग्नि की स्तुति करता हूँ"
ऐसा इसका अनावश्यक अर्थ किया है।
BK आस्था दीदी
सिवनी, मध्यप्रदेश

इस 👇 बारे में भी जानें।
1. श्री राम रक्षा स्त्रोत एवं उसका हिंदी अनुवाद।
2. पूजा का आरंभ कहाँ से करना चाहिए? पवित्रीकरण मंत्रों का हिंदी अनुवाद।
3. गजाननं भूतगणादि सेवितं ... श्लोक की फलप्राप्ति, श्लोक का संस्कृत अर्थ, हिन्दी व अंग्रेजी अनुवाद
4. आरती क्यों करना चाहिए? आरती का अर्थ
5. आध्यात्मिक पहलू- गन्दे और अस्त-व्यस्त वस्त्र धारण क्यों नही करना चाहिए?
6. पुण्य कर्म क्या है इनकी परिभाषा, ये कहाॅं आड़े आते हैं?
7. ये हैं महान नारियाँ! भारतीय समाज में नारी का स्थान ऊँचा क्यों है?
8. ॐ का रहस्य— इसका उच्चारण कब और क्यों करें?

इस 👇 बारे में भी जानें।
1. हरितालिका तीजा व्रत कथा
2. गणेश जी की आरती १. जय गणेश जय गणेश देवा। २. गणपति सेवा मंगल मेवा
3. हिन्दू विधि एवं दर्शन क्या है? इसका स्वरूप
4. नित्य स्मरणीय संस्कृत के मन्त्र
5. "वैष्णव जन तो तेने कहिये" भजन एवं इसका हिन्दी अर्थ
6. माँ दुर्गा जी की आरती अर्थ सहित।
7. श्री कुबेर महाराज की आरती

I hope the above information will be useful and important.
(आशा है, उपरोक्त जानकारी उपयोगी एवं महत्वपूर्ण होगी।)
Thank you.
R F Temre
pragyaab.com

  • Share on :

Comments

Leave a reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

You may also like

गाँधी जयंती के अवसर पर दिए जा सकने वाले वक्तव्य / भाषण | गांधी जी का व्यक्तित्व एवं कृतित्व

इस लेख में गाँधी जयंती के अवसर पर दिए जा सकने वाले वक्तव्य / भाषण एवं उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डाला गया है।

Read more

Shri Krishna Ashtmi 108 Names of lord Krishna | भगवान श्रीकृष्ण जन्माष्टमी - भगवान श्रीकृष्ण के 108 नाम जाप हेतु 108 मंत्र

इस लेख में श्री कृष्ण जन्माष्टमी के संबंध में महत्वपूर्ण जानकारी एवं भगवान श्री कृष्ण की 108 नाम एवं मंत्रों के बारे में जानकारी दी गई है।

Read more

गुरू पूर्णिमा का महत्व एवं पारंपरिक गुरू-शिष्य संस्कृति | प्राचीन काल में प्रचलित गुरूकुल व्यवस्था एवं उसका भारतीय संस्कृति पर प्रभाव

इस लेख में शिक्षा विभाग के आदेश अनुसार विद्यालयों में गुरु पूर्णिमा पर मनाया जाने के निर्देश के साथ-साथ गुरु पूर्णिमा पर्व कैसे मनाया जाए इस संबंध में जानकारी दी गई है।

Read more

Follow us

subscribe